ऐ हसीन श्याम
क्या तुम रात के सन्नाटे में खोने चली हो ?
मिटाने चली हो अपने होने को
या चली हो कुछ नये को
अंकुरित करने को,
पर जरा रहना संभल कर
वहां तुम्हे मिलेगा मेरा सहचर,
जो तक रहा होगा राह मेरे आने की
क्या तू उसको निहार सकेगी ?
मेरे मन की उस पीड़ा को बता सकेगी
जो,उसके लिए, एक टीस लिए तड़प रहा है
पर मैं जानती हूं तू कभी नहीं बतलायेगी….,
क्योंकि,
तु खुद खो जाती उसमें उसी की होकर,
अनगिनत युग काल खो गये,
उसकी गोद में दम तोड़ कर
क्योंकि वहीं पूर्णता
जिसकी तडप जिसका शोर
खिंच रही है,
मिट-मिट कर भी हमें अपनी ओर
पर हम मिट पाते नहीं है यार
हर बार किसी नई सुबह का
कर लेते है कोई बीज तैयार
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