अनेक सपने थे, हमने देखे
अनेक तारे थे, मेरे दामन में
अनेक रुसवाईयां, सही बार बार
अनेक वादों पर, किया था ऐतबार
सांसों के कुछ हारों को हमने गुथा
रातों के तारों के छिपने से पहले,
अनेक आंसुओं की पिरोती थी माला!
अनेक सिसकियाँ दबी घुटी सी,
सिसक-सिसक कर कुछ कहना चाहा,
सपनों को पलकों के जाने से पहले।
अनेक सीने में दबी थी आहें।
कोई तो जाकर उनसे कह दो।
एक मूक कोई दबा घुटा सा।
दूर खड़ा अब सिसक रहा है।
विरानी इन अंधी गलियों में
कोई तड़पता खड़ा इधर है।
उनके आने का इन्तजार बहुत है।
अपनी सांसों का एतबार कहां है ?
© प्रिया जैन
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