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Tuesday, July 2, 2024

कोई लौटा दे मुझे

 


लिपटे सिकुड़े से आए थे हम,

अँखियाँ थी बंद बंद।

कब सीख गए दौड़ना?

कब सीख गए उड़ना?


कोई लौटा दे मुझे वो यौवन का जुनून,

जुनून कुछ कर दिखाने का,

जुनून कुछ बन जाने का।

कोई लौटा दे वो बचपन की मासूमियत,

वो सीधी साधी शख़्सियत,

वो बे ख़ौफ़ लड़कपन, 

वो खुल के जीने का ढंग। 

वो कामयाबी के सपने,

वो बेदाग़ आईने।



ले लो मेरे ऊलजलूल डर,

लौटा दो मेरे दिलेर पर।

ले लो वो आत्म-संदेह के भार,

लौटा दो ज़िन्दगी का उद्दीप्त सार।

जो था हँसना मुस्कुराना,

हर हाल में गुनगुनाना।


ले लो सारी निर्बलता,

लौटा दो मेरी असफलता,

मेरी अटलता।

ले लो सारी मजबूरियाँ,

लौटा दो हँसी की झुर्रियाँ।


ले लो संसारिक बोझ,

जो डुबाते हैं हमें रोज़।

लौटा दो वो निश्चलता,

वो बचपन की सरलता।


फिर एक बार लिपटे-सिकुड़े हैं हम,

सफेद चादर में सिमट कर रह गए हम।

कब भूल गए उड़ना?

कब सीख गए रुकना?


©️प्रिया जैन


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