ए बेगाने तुम अपने से लगते हो
बेचैनी है परंतु दर्द कहां है उसमें,
वो तो एक एहसास है, पकड़ कहां है उसमें।
वो दूर है मगर दूर कहां है हमसें।
तार बंधे है विराह के, प्रेम कहां है इनमें।
पीर ने घेरा हमको, पीड़ा कहां है दिलमें
कुछ लोग कितने बेगाने से होते है
परंतु कितने करीब होते है आपने
मानों वो मैं हूं और वो उसकी परछाई
कैसे एक याद की बदली घिर आई
मानों अभी वह पास आकर बैठ जाऐगा
और मिलेगे दिल से दिल के तार
तब बहेगे झर- झर आंसू के झरने
वहां छलक रहा होगा कोई जुनून
दूर किसी सुदूर की घाटी से
कोई पुकारता सा लगता है
बेगाने तुम कितने अपने-अपने से लगते हो
मानों मैं-मैं नहीं तुम ही तुम हो
कैसे दूरी मिट जाती है पल में
कई युगों की कल्पों की
बेगाने मैंने तुम्हें पहले भी जाना है
जीया है, पिया है तेरे संग साथ को
न जाने क्यों मुझे बार-बार ऐसा लगता है।
© प्रिया जैन
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