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Wednesday, January 27, 2021

रात का सन्नाटा

 ऐ हसीन श्‍याम

क्‍या तुम रात के सन्नाटे में खोने चली हो ?

मिटाने चली हो अपने होने को

या चली  हो कुछ नये को

अंकुरित करने को,


पर जरा रहना संभल कर  

वहां तुम्हे मिलेगा मेरा सहचर,

जो तक रहा होगा राह मेरे आने की  

क्या तू उसको निहार सकेगी ?


मेरे मन की उस पीड़ा को बता सकेगी 

जो,उसके लिए, एक टीस लिए तड़प रहा है 

पर मैं जानती हूं तू  कभी नहीं बतलायेगी….,

क्योंकि,

तु खुद खो जाती उसमें उसी की होकर,


अनगिनत युग काल खो गये,

 उसकी गोद में दम तोड़ कर

क्‍योंकि वहीं पूर्णता

जिसकी तडप जिसका शोर

 खिंच रही है,

 मिट-मिट कर भी हमें अपनी ओर


पर हम  मिट पाते नहीं है यार

हर बार किसी नई सुबह का

कर लेते है कोई बीज तैयार

Tuesday, January 26, 2021

सेह सको तो रहो

 देश में दंगे तो होंगे,

सेह सको तो रहो


कभी होगा केसरी,

तो कभी होगा हरा

भेद कर सको तो रहो


जय किसान जय जवान

किसी एक को 

चुन सको तो रहो

 

दिल्ली को, सरकार ने

 बना दिया सर्कस

 देख सको तो रहो


गण तंत्र दिवस पर

लोक तंत्र का तिरस्कार

देश के तिरंगे का अपमान

सेह सको तो रहो


देश में दंगे तो होंगे,

सेह सको तो रहो


© प्रिया जैन









Thursday, January 21, 2021

ऐतबार

 

अनेक सपने थे, हमने देखे


अनेक तारे थे, मेरे दामन में


अनेक रुसवाईयां, सही बार बार


अनेक वादों पर, किया था ऐतबार


सांसों के कुछ हारों को हमने गुथा


रातों के तारों के छिपने से पहले,


अनेक आंसुओं की पिरोती थी माला!


अनेक सिसकियाँ दबी घुटी सी,


सिसक-सिसक कर कुछ कहना चाहा,


सपनों को पलकों के जाने से पहले।


अनेक सीने में दबी थी आहें।


कोई तो जाकर उनसे कह दो।


एक मूक कोई दबा घुटा सा।


दूर खड़ा अब सिसक रहा है।


विरानी इन अंधी गलियों में


कोई तड़पता खड़ा इधर है।


उनके आने का इन्‍तजार बहुत है।


अपनी सांसों का एतबार कहां है ?


© प्रिया जैन

Wednesday, January 13, 2021

दूज का चाँद

 दूज का चाँद बैठा है आसमान पर

प्रात: काल घुटने मोड कर

एक शर्मीली प्रेमिका की तरह

शायद कर रहा है वो इंतजार

किसी पूर्णमासी के आने का


लेकीन वो कितना पूरा लगता है

 अधूरा सा मुख ले कर भी

उस मुखौटे के पीछे से दिखता है

उसका वह सांवला रंग

जो झलकाता है उसके होने को


और हम है कि पहने है

अपने मुख पर रंग भरे मुखौटे

कोई सोने का, कोई चाँदी का

कोई पद का, कोई नाम का

ये सब है अहंकार के रूप

देखने में चाहे वो लगे खूसूरत

फिर भी वे है बहुत कुरूप



क्‍योंकि वह भद्दे हैं

और पाखंडी हैं

अहं और मद और पद की मदीरा में डूबे है

जिन्‍हें हमें हर दिन संवारना है

कही उनका असली रूप न झांक उठे।

और दिख जाये हमे हमारा होना…..


© प्रिया जैन

Tuesday, January 12, 2021

ए बेगाने

 ए बेगाने तुम अपने से लगते हो


बेचैनी है परंतु दर्द कहां है उसमें,


वो तो एक एहसास है, पकड़ कहां है उसमें।


वो दूर है मगर दूर कहां है हमसें।


तार बंधे है विराह के, प्रेम कहां है इनमें।


पीर ने घेरा हमको, पीड़ा कहां है दिलमें


कुछ लोग कितने बेगाने से होते है


परंतु कितने करीब होते है आपने


मानों वो मैं हूं और वो उसकी परछाई


कैसे एक याद की बदली घिर आई


मानों अभी वह पास आकर बैठ जाऐगा


और मिलेगे दिल से दिल के तार


तब बहेगे झर- झर आंसू के झरने


वहां छलक रहा होगा कोई जुनून


दूर किसी सुदूर की घाटी से


कोई पुकारता सा लगता है


बेगाने तुम कितने अपने-अपने से लगते हो


मानों मैं-मैं नहीं तुम ही तुम हो


कैसे दूरी मिट जाती है पल में


कई युगों की कल्पों की


बेगाने मैंने तुम्हें पहले भी जाना है


जीया है, पिया है तेरे संग साथ को


न जाने क्यों मुझे बार-बार ऐसा लगता है।


© प्रिया जैन