Thursday, December 10, 2020

क्यों मरे मरे जीते हो?

 


क्यूं मरे मरे जीते हो?

एक दिन गुलाब हो कर देखो

तुम तो घास के फूल हो

दीवार की ओट में 

ईटों में दबे हुए

कई तूफ़ान आये

चोट ना दे पाए

ईटों की आड़ है

सूरज सता ना पाए

ईटों की आड़ है

वर्षा गिरा ना पाए

ज़मीन की आड़ है


पास बैठे गुलाब को देखो

जब तूफ़ान आए

जड़ें उखड़ी उखड़ी हो जाएं

जब भी फूल खिले

पूरा खिल भी ना पाए

कोई ना कोई उसे तोड़ जाए

जब वर्षा आए

उसकी पंखुड़ियां बिखर कर

ज़मीन पर गिर जाएं


क्यूं मरे मरे जीते हो?

एक दिन गुलाब हो कर देखो

बहुत दिन सुरक्षा में रह लिए

बहुत दिन हुए झंझट लिए 

पास-पड़ोस के फूल बोल पड़े,

"ये एक पागलपन है

जातिगत अनुभव कहता है

हम जहां हैं, बड़े मजे में हैं ।"

गुलाब बोला, "पर क्या कभी 

सूरज से बात कर पाओगे

 कभी तूफानों से लड़ पाओगे

 कभी वर्षा झेल पाओगे?"

 पास-पड़ोस के फूल फ़िर बोल पड़े,

 "पागल, जरूरत क्या है? 

 ईंट की आड़ में आराम है

  न धूप हमें सताती

  न बरसा हमें सताती

  न तूफान हमें छू सकता।"



लेकिन,

उसने किसी की ना सुनी

और एक दिन गुलाब बन गई

सुबह से ही मुसीबतें शुरु हो गयी

जोर की आंधियां चलीं, 

प्राण का रोआं-रोआं कांप गया,

 जड़े उखड़ने लगीं

दोपहर होते-होते सूरज तेज हुआ

फूल तो खिला, लेकिन कुम्हलाने लगा

वर्षा आई, पंखुड़िया नीचे गिरने लगीं

फिर तो इतने जोर की वर्षा आई 

कि सांझ होते-होते जड़े उखड़ गई 


और फूलों ने उससे कहा, 

"पागल, हमने पहले ही कहा था

व्यर्थ अपनी जिंदगी गंवाई

अपने हाथों मुश्किलें ले आयीं

हमारी पुरानी सुविधा थी, 

माना कि पुरानी मुश्किलें थीं, 

लेकिन सब आदी था,

परिचित था।"


मरते हुए गुलाब  ने कहा,

"नासमझो, मैं तुमसे यही कहूंगी

कि जिंदगी भर ईंट की आड़ में 

छिपे हुए घास का फूल होने से 

चौबीस घंटे के लिए फूल हो जाना 

बहुत आनंदपूर्ण है

मैंने अपनी आत्मा पा ली

मैं तूफानों से लड़ ली

सूरज से मुलाक़ात की

मैं हवाओं से जूझ ली

मैं ऐसे ही नहीं मर रही हूं

 मैं जी कर मर रही हूं

 और

 तुम मरे हुए जी रहे हो।"


क्यूं मरे मरे जीते हो?

एक दिन गुलाब होकर देखो


© प्रिया जैन







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